Jabalpur/जबलपुर/माँ एक ऐसी शख्सियत होती है जो हमारे जीवन में अहम भूमिका निभाती है। एक मां का अपने बच्चों के लिए बलिदान अतुलनीय होता है। चाहे अपने बीमार बच्चे की देखभाल करना हो, उनका पसंदीदा भोजन बनाना हो या आरामदायक जीवन प्रदान करना हो वह हमेशा कड़ी मेहनत करती है। एक मां का प्यार निस्वार्थ होता है जो बदले में कुछ भी पाने की उम्मीद नहीं करता। माँ अपने सारे सपने को त्याग कर अपने बच्चे की खुशी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। एक माँ की पहचान उसके ममता से होती है न कि उसके जाति या धर्म से। परंतु हमारे समाज में आज भी कुछ ऐसे लोग रहते हैं जो जाति-धर्म के खोखले रिवाजों व छुआछुत को मान्यता देते हैं।
छुआछुत के प्रति हमारा समाज सदियों से अब तक अमानवीय कदम उठाता रहा है। दूसरे शब्दों में हमारे समाज में छुआछूत के लिए कोई सहानुभूति और सहृदयता का भाव नहीं है। उनके प्रति पशुता पूर्ण व्यवहार ही हमारे समाज की देन रही है। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही शूद्रों अर्थात अस्पृश्यों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत दूर रखा गया, बस्तियों से दूर रखा गया, हर प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा गया जिससे विवश होकर वे गड्ढों का पानी पीने के लिए मजबूर होते रहे हैं। उन्हें छूने पर छूने वालों को नहीं अपितु उन्हें ही कठोर दण्ड दिए जाते रहे हैं। इस प्रकार उन्हें न तो किसी के घर पर जाने का अधिकार प्राप्त हुआ और न ही उन्हें मंदिर, तीर्थ स्थल आदि पवित्र स्थानों में जाने या प्रवेश करने की कभी कोई छूट मिली। ऐसी ही दयनीय कहानी है एक लाचार विधवा माँ सुखिया की। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न तो अन्न का एक दाना गया था न पानी की एक बूँद क्योंकि उसका नन्हा सा बालक जियावान बहुत बीमार था।
सुखिया भगवान ठाकुर जी से मनौती करती है कि अगर उसका बेटा स्वस्थ हो जाएगा तो वह मन्दिर जाकर ठाकुर जी के चरण स्पर्श करेंगी। सुखिया के मनौती कहते ही जियावान के तबीयत में थोड़ा सुधार आने लगता है। सुखिया को लगता है ये सब ठाकुर जी की ही कृपा है। इसके बाद वह मन्दिर जाने को तैयार होती है परंतु उसके पास मिठाइयों के लिए पैसे नहीं थे। उसने गाँव के हर एक व्यक्ति से पैसे मांगे पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की क्योंकि सुखिया निम्न जाति की थी। कारणवश उसने मजबूरन अपने गहने बेच कर मिठाइयों का इंतजाम किया। सुखिया पूजा की थाली और जियावान को गोद में लेकर मन्दिर पहुँचती है जहां उसे अंदर प्रवेश करने नहीं दिया जाता। जियावान की हालत खराब होता देख वो दया की भिख मांगने लगती है। तो क्या सुखिया मन्दिर में प्रवेश कर ठाकुर जी के चरण स्पर्श कर पाएगी? क्या जियावान पूरी तरह से स्वस्थ हो पाएगा? क्या सुखिया की ममता के आगे पूरा समाज नतमस्तक हो जाएगा? सुखिया का निम्न जाति का होना उसके लिए वरदान साबित होता है या अभिशाप?
जानने के लिए सुनिए पूरी कहानी ‘मन्दिर’ जिसके लेखक हैं मुंशी प्रेमचंद, सिर्फ booksinvoice.com पर।